मंगलवार, 30 मार्च 2010

आकाश-पाताल (धारावाहिक कहानी, भाग-१)

रघुनाथ बस से उतर कर थोड़ी देर पास के पेड़ की छाँव में बैठ गया। शहर जाना सफल नहीं हुआ। उसे क्या पता था कि आज ही शहर में बंदी हो जाएगी। वो तो राम राम करके लौटने की बस मिल गयी नहीं तो आज तो फँस ही गया था। आदर्श पार्टी ने शहर बंदी का एलान किया था। शहर में हो रही रोजाना कि वारदातों में पुलिस की मिली भगत के विरोध में विपक्षी पार्टियाँ गोल बंद हो रही हैं, ऐसा सुना तो था लेकिन आज ही ऐसा कुछ हो जाएगा इसका अंदेशा रघुनाथ को नहीं था। बस स्टैंड से उलटे पैर वापिस भगा दिया आदर्शियों ने। इतने सारे डंडा-धारियों के सामने उसकी क्या चलने वाली थी। जहाँ एक एक रुपये के लिए रोना पड़ रहा है, वहीं दस रुपये का खर्चा बस में आने जाने में फ़िजूल हो गया। आज तो सुबह से कुछ खाया भी नहीं था। मुँह अँधेरे ही जो निकल पड़ा था आज, सोचा था धूप सिर पर आने से पहले ही शहर पहुँच जाएगा और काम की तलाश में जुट जाएगा। दिन का और दस रुपये का पूरा पूरा इस्तेमाल कर लेना चाहता था।

थोड़ी देर सुस्ता कर उसने आस-पास देखा। पानी की बेहद ज़रूरत महसूस होने लगी थी। मई की तपती दोपहर में दूर दूर तक उसे कोई ना दिखा। अब गाँव जाकर ही पानी का प्रबंध हो पायेगा, लेकिन यहाँ से गाँव एक कोस दूर है और पैदल जाना वो भी प्यासे, उसे काफी मुश्किल मालूम हुआ। इसी ऊहापोह में थोड़ा समय निकल गया लेकिन रघुनाथ उठने की हिम्मत जुटा नहीं पाया। भूख-प्यास और गर्मी के समागम ने उसे तन्द्रा में भेज दिया।

बिम्मो विक्रांत को स्कूल जाने के लिए तैयार कर रही है। रघुनाथ अभी भी खाट पर ही है। बुखार अब थोड़ा कम है लेकिन बदन की टूटन है कि जाने का नाम नहीं ले रही। अम्मा चीख रही है, "बिमलो ओ बिमलो, रोटी देबेगी कि आज भूखो मान्ने की ठान लईये। मरी डायन विक्टोरिया कहूँ की। कब ते चीख रईऊ लेकिन कान पे बिछुऊ नाइ रेंग रईयो। ओ बिमलो"। अम्मा को बिमला कभी पसंद नहीं आई थी। बाबूजी घर में पढ़ी लिखी बहू लाना चाहते थे। पास गाँव के दवाखाने के कम्पाउनडर की बेटी थी बिमला। बारहवीं पास, यानी अपने जमाने की औरतों के हिसाब से बहुत पढ़ी लिखी। उस समय में गाँव में लड़कियों को पढ़ाना एक हौआ माना जाता था। और ना भी मानते तो क्या, गाँव में स्कूल होना ही दूर की कौड़ी थी। लेकिन बिमला के बापू ने लड़की को शहर भेज कर पढ़ाया। कम्पाउनडर होने के नाते गाँव में सम्मान था, किसी की कुछ कहने की हिम्मत नहीं थी। बिमला और भी पढ़ लेती लेकिन उसके भाग्य में उतना ही पढ़ना लिखा था। बिमला से छोटे एक भाई और एक बहिन भी थे और बिमला की माँ इससे ज्यादा बिमला को घर में बिठाने के पक्ष में नहीं थी।

इधर रघुनाथ के बाबूजी किसी न किसी बीमारी के लिए दवाखाने जाते ही थे महीने में एक दो बार। इसी कारण से बिमला के बापू से उनका सम्बन्ध व्यावसायिक से व्यक्तिगत होता गया। उनकी प्रगाढ़ दोस्ती को रिश्ते में बदलते देर ना लगी और दोनों समधी रघुनाथ और बिमला के ब्याह पर गले लग कर निहाल हो गए।

क्रमश: