शनिवार, 3 जुलाई 2010

वॉचमैन

यही कोई २५ साल की उम्र रही होगी उसकी। नाम था कुसल। कल तक हमारी बिल्डिंग का वॉचमैन था वो। मुझसे अपने दिल का सब हाल कह दिया करता था। पता नहीं क्यों एक हमदर्दी थी उससे। थी क्या, शायद अभी भी है। इसीलिए तो उसके बारे में लिख रहा हूँ।

तो कुसल अपने गाँव से यहाँ वही अरमान लेकर आया जो सभी इस शहर की ओर आने वाले लोगों के मन में रहता है। ज्यादा पैसे कमाना और बचे तो गाँव में परिवार को भिजवा देना। लेकिन सब लोगों से अलग एक बात थी उसमें, ईमानदारी। अपने काम के प्रति भरपूर ईमानदारी। चाहे जो हो, पैसा कम मिले या न मिले, उसे उसके ईमान से कोई नहीं डिगा सकता था, ऐसा कम से कम उसका विश्वास था और उससे परिचित होने के बाद मेरा भी हो चला था।

लेकिन कल उसे धक्के मार कर यहाँ से निकाल दिया गया और वो भी उसकी नागवार बेईमान हरकत के कारण जिसे वो पिछले कुछ महीने से अंजाम दे रहा था। किसी घर की बिजली अचानक से बढ़ जाती और उस घर के कीमती बिजली के आयटम फ्यूज हो जाते। भारी नुक्सान से तिलमिलाए घर वाले कुसल को बिजली ठीक करने वाले को बुलाने को कहते और कुसल उसे बुला लाता था। कुछ घंटो की मशक्कत के बाद घर की बिजली ठीक कर दी जाती और फिर कुछ दिन सब सामान्य हो जाता। फिर अचानक ठीक वही किस्सा किसी दूसरे घर में हो जाता। सिलसिला तब टूटा जब वर्मा जी जो कि ख़ुद बिजली विभाग में हैं, के घर भी यही सब हुआ और उन्होंने अपने ऑफिस से एलेक्ट्रिसियन बुलवा भेजा।

कुसल अपने बिजली वाले के साथ मिल कर एक के बाद एक घरों की अर्थिंग में फॉल्ट कर देता था। और फिर उसी बिजली वाले को बुला कर उसे सही करवा दिया जाता। मोटा मेहनताना वसूला जाता जिसमें कुसल का भी हिस्सा रहता।

बहरहाल, मुझे जो कचोट रहा है वो ये, कि मुझे कुसल से अभी भी हमदर्दी क्यों है? वो तो बेईमान निकला! सबका इतना नुक्सान कर गया!! फिर भी मेरे दिल में उसके लिए बुरा नहीं है। आप कहेंगे कि शायद आप के घर का कंप्यूटर या पंखा नहीं फुका, इसीलिए. लेकिन नहीं, बात वो नहीं है। बात शायद ये है कि उसने जो ये सब किया, वो अपने माँ बाप के लिए किया। मुझे पता है कि वो ज्यादा से ज्यादा बचा कर गाँव भेज देता था और अपने ऊपर तो कभी खर्चा करने का सोचता भी नहीं था। पिछले महीने ही चहक कर बोला था कि बाबा ने माँ का कंगन रहन से छुड़ा लिया है। लेकिन अगले ही पल कुछ उदास हो गया था। मैंने पूछा भी लेकिन उस बार वो अपना दिल खोल नहीं पाया था। उसके मन में चल रही उथल-पुथल को मैं आज समझ पाया हूँ।

संतान का फ़र्ज़ उसने हम कई शहर वालों से बेहतर निभाया है और अपनी उस ईमानदारी को जिंदा रखने के लिए ही वो समाज का बेईमान बना है। उन लोगों से वो कही बेहतर है जो दुनिया में ख़ुद को ईमानदार और सफेदपोश दिखाने के लिए अपना ईमान सैकड़ो बार नीलाम कर देते हैं.

वॉचमैन का ख्याल अब मुझे परेशान नहीं कर रहा है। मैंने उसके और अपने दोनों के मन की ऊहापोह को जो समझ लिया है।

2 टिप्‍पणियां:

  1. बेईमानी और चोरी को कभी जायज नहीं ठहराया जा सकता चाहे उद्देश्य कुछ भी हो...

    जवाब देंहटाएं
  2. आपने पढ़ा, थैंक्स. आपके ही जैसे विचार मेरे भी हैं और इस केस में भी थे, लेकिन वो बदल गए. और इसीलिए इस राइट अप का जन्म हुआ. ईमानदारी बेईमानी सोचने के एंगेल पर भी डिपेंड करता है. आपकी सोच इस किस्से पर अलग है क्योंकि आप समाज का हिस्सा हैं. उपरोक्त कहानी के नायक की सोच अलग है, और बेईमानी करना उसे जायज़ लगा. मैं उसके मन में झाँक पाया तो उसकी पीड़ा और ऊहापोह को समझ पाया.

    वैसे अगर ईमानदारी और बेईमानी की परिभाषा रिलेटिव और नज़रिए पर निर्भर न होती तो संसार में सिर्फ ईमानदारी ही होती. प्रकृति और मनुष्य के बनाये भेदभाव और असमानता ही अपराध के जनक हैं. सही है न, जन्म से कोई चोर नहीं होता.

    जवाब देंहटाएं